Thursday, 8 December 2016

हर रोज़ सफर

हर रोज़ सफर पर निकलता हूँ तेरी आँखों में खुद का अक्स छोड़ के
तेरी अलसाई मोहब्बत मुझे धकेलती भी है और रोक भी लेती है
गली के नुक्कड़ से तझे रोज़ मुड़कर देखता हूँ तो लगता है के
कुछ पल और रुक सकता हूँ यूँ ही के दिन अभी इतना भी नहीं चढ़ा
तू कहती तो नहीं पर अब कुछ कुछ पढ़ लेता हूँ तेरी आँखें मैं
के इसीलिए हर शाम लौट आता हूँ तेरे पास फिर अगली सुबह जाने के लिए.....
और एक बार फिर लौट के आने के लिए .......
- अनुपम 

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